‘जी रया जागि रया, दूब जस फैलि जया । आकाश जस उच्च, धरती जस चाकव है जया। स्यू जस तराण है जो, स्याव जस बुद्धि है जो। सिल पिसी भात खाया, जांठि टेकि भैर जया।
उत्तराखंड जितना खूबसूरत है, उतने ही खूबसूरत है यहा के त्योहार, परंपराए और संस्कृति। यहां के लोकपर्व, रहन-सहन, खानपान कई मायनों में प्रकृति से जुड़े हुए हैं। ऐसा ही उत्तराखण्ड मे एक त्योहार मनाया जाता है ‘हरेला‘ (Harela)।
यह लोकपर्व सावन के आने का संदेश है, जिसके पीछे फसल लहलहाने की कामना है, बीजों का संरक्षण है।
हरेला पर्व की तयारी मे लोग 9 दिन पहले से जुट जाते है। खेतों से मिट्टी लाकर उसे सूखा जाता है, फिर मिट्टी या फिर बांस से बनी टोकरियों में 5 या 7 प्रकार के अनाज का मिश्रण करके बोया जाता है। इन अनाजों में धान, गेहूं, मक्का, भट, उड़द, गहत, तिल आदि होते है। टोकरी में एक परत मिट्टी की, दूसरी परत सात अनाज की बिछाई जाती है। दोनों की तीन-चार परत तैयार कर टोकरी को मंदिर मे सूरज की रोशनी से दूर रख दिया जाता है, और घर की महिलाओ के द्वारा रोजाना उसमे पानी डालकर सिचाई भी की जाता है। चौथे-पांचवें दिन इसकी गुड़ाई भी की जाती है। 9 दिन में जब सावन मास की सुरुआत होती है इस टोकरी में अनाज की बाली जाती हैं। इसी को हरेला कहते हैं।
ये त्योहार सामाजिक ओर वैज्ञानिक दोनों ही नजरिए से बहुत महत्वपूर्ण है अगर बात करे इसके वैज्ञानिक दृष्टिकोण की तो एक तरह से ये पहाड़ों मे बीजो का परीक्षण है जिससे हम पता लगाते है की इस वर्ष इन अनाजों के अंकुरण की स्थिति कैसी रहेगी। और कहा जाता है जिसका जितना अच्छा हरेला होगा उस साल उतनी ही अच्छी फसल भी होगी।
दसवें दिन, यानी हरेला के दिन, घर के बुजुर्ग सुबह पूजा-पाठ करके हरेला काटते हैं और देवी-देवताओं को चढ़ाते हैं। इसके बाद घर के सभी सदस्यों के सिर पर हरेला के तिनके रखकर आशीर्वाद देते हैं – ‘जी रया जागि रया, दूब जस फैलि जया। आकाश जस उच्च, धरती जस चाकव है जया। स्यू जस तराण है जो, स्याव जस बुद्धि है जो। सिल पिसी भात खाया, जांठि टेकि भैर जया।’ यानी, जीते रहो, जागृत रहो, आकाश जैसे उच्च, धरती जैसे विस्तृत हो। सियार जैसी बुद्धि हो और सूरज की तरह चमकते रहो। इतनी उम्र हो कि चावल सिल पर पीसकर खाओ और लाठी टेक कर बाहर जाओ। दूब की तरह हर जगह फैल जाओ।
हरेला पर्व न केवल उत्तराखंड की समृद्ध संस्कृति और परंपराओं का प्रतीक है, बल्कि यह हमें प्रकृति के साथ हमारे अटूट संबंध की याद दिलाता है। यह न केवल एक धार्मिक उत्सव है, बल्कि प्राकृतिक संतुलन और कृषि समृद्धि का भी प्रतीक है। यह त्योहार हमें सिखाता है कि कैसे हम अपनी जड़ों से जुड़े रहें और अपने पर्यावरण का सम्मान करें।